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परोपकार और सहयोग हमारी मूल वृत्ति में हों - उपप्रवर्तिनी डॉ. राजमती जी म.सा.


                                                                                                   अजमेर, 1 जुलाई मणिपुंज सेवा संस्थान में शताब्दी गौरवान्विता महाश्रमणी गुरूमाता महासती श्री पुष्पवती जी (माताजी) म. सा. आदि ठाणा-7 के दर्शन, वन्दन एवं मंगलिक के लिए श्रावक-श्राविकाओं का आगमन जारी है। प्रात: सूर्यादय के समय प्रार्थना, नवकार महामंत्र जाप के साथ आत्म कल्याण की भावना विकसित करने का प्रयास किया जाता है।  
                                                                                                                                                                उपप्रवर्तिनी सदगुरुवर्या डॉ. श्री राजमती जी म.सा. ने धर्म चर्चा करते हुए फरमाया - अगर हमारी सोच सकारात्मक है, तो किसी न किसी निमित्त से सही दिशा में जा सकते हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम' अर्थात् परोपकार और सहायेग हमारी वृत्ति के मूल में होना चाहिए, जैसे वृक्षों में होता है। वृक्षों के चार प्रमुख गुणों - स्वविस्तार, छाया, सौरभ और सरसता से सीख लेकर हम अपना जीवन सफल बना सकते हैं। वृक्ष की भाँति जीवन में प्रेम रूपी जड़ को मजबूत बनायें और दूर-दूर तक फैलायें, फिर करूणा, सेवा, सहयोग के फूल-पत्ते खिलायें। आपसी प्रेम का प्रसार जाति, पंथ, धर्म, गोरा-काला सभी भेदभाव खत्म कर डालता है और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का जागरण हो सकता है।
                                                                              साध्वी डॉ. राजरश्मि जी म.सा. ने फरमाया - परोपकार हमारे अंतर्मन की चेतना का ही दूसरा नाम है, इसे जागृत करने का अभ्यास करना चाहिए। खाओ-पीओ, मौज करो यह पश्चिमी संस्कृति है। भारतीय संस्कार इसकी अनुमती नहीं देते। हमारी संस्कृति मानव चेतना को दैनिक आचार से जोड़कर दिव्य बनाने की है। परोपकार से मानसिक शुद्धि आ जाती है।  
                                                                                                                                  साध्वी डॉ. राजऋद्धि जी म.सा. ने कहा - विषय-वासनाओं का मार्ग आत्मा के लिए कंटकाकीर्ण है। जो धर्म मार्ग पर चलता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।  
                                                                                                                                                                                                 महासती वृन्द ने आज आगन्तुक दर्शनार्थियों को विशेष रूप से सामायिक, स्वाध्याय की प्रेरणा दी। कर्म निर्जरा के लिए समभाव की साधना होनी चाहिए। संघ अध्यक्ष शिखरचंद सिंगी जी ने जानकारी दी कि चातुर्मासिक कार्यक्रमों में श्रावक-श्राविकाएं उत्साहपूर्वक लाभ लेने हेतु तत्पर है।